झुकी थकी-सी ये नीम जैसे कोई हताशा विलाप करती
ये मौन पतझर की रागिनी है जो डूब कर फिर अलाप भरती
अभी जो तुमको लगा कि कोई पहन के साड़ी उधर गया है
वो था भटकता ध्रुपद का टुकड़ा हवा में उड़ता जो घर गया है
कहाँ पे टूटी वो साँस जिसने कि चन्द्रमा तक इसे उठाया
निचाट ऊसर की रेह में भी हँसी का झरना कभी बहाया
हवा को अब तक है याद उसकी उसी से जीवन में है रवानी
वही तो निर्जन की बाँसुरी है वहीं तो सबकी नजर का पानी
वो साँस चलती है धौंकनी-सी उसी में दुनिया दहक रही है
कभी वो चिड़िया की प्यास बन कर निदाध में भी चहक रही है
उसी की रंगत है रेत में जो मरीचिका-सी लहक रही है
कभी पिया था नदी का पानी उसी नशे में बहक रही है
मघा के बादल गरज रहे हैं गगन-गुफा में जो साँस घुसती
हलक में काँटा अभी फँसा है गजब की चुप्पी में साँस घुटती।