पिताजी शुरू से ही नापसंद करते थे
नारियल तैल की तीखी कसकसी गंध
पिता की रुचि
बन गई मां का अटल धर्म
और हम बच्चों का संस्कार
और इस तरह हम में से कभी किसी ने
नहीं की नारियल तैल की चर्चा घर में।
बहिनों के ससुराल
और मेरे कॉलेज जाने के दिनों तक
वर्जित ही रहा हमारे घर में प्रवेश
नारियल के तैल का।
एक दिन पहली बार प्रवेश किया
उस गंध ने घर में आहिस्ता
मेरे कपड़ों के साथ
पिता उस वक्त काट रहे थे नाखून छत पर
और मां समेट रही थी सूखे कपड़े
फरवरी की ढलती धूप में
मैंने चुपचाप बदल डाले कपड़े, नहाया जी भर
और इस तरह दूर की सिहरन और संकोच
और वह गंध नारियल तैल की।
फिर अक्सर ही आने लगी गंध
बसने लगी मेरे कपड़ों में
मेरी देह में और विचारों में
मां अब रहने लगी थी चौकन्नी
और पिता अप्रसन्न, बेचैनी में बदलते पहलू
टहलते इधर-उधर
किसी अप्रत्याशित मुठभेड़ का
पूर्वाभ्यास-सा करते
मैं निगाहें छुपाता रहा
पिता से और पिता अपने प्रश्नों को मुझसे
निरंतर जारी था गंध का आक्रमण
और संक्रमण घर तक
धीरे-धीरे वह फैलने लगी मेरे बिस्तरों में
किताबों-कुर्सियों-रोटियों के बीच
कमरों के आले-अलमारियों, दीवारों पर
मैं ले आना चाहता था घर में
नारियल तैल की गंध का अंकुठित प्रवाह।
आक्रमणों-प्रतिरोधों की अपनी-अपनी
भौतिकी के बीच
सात्म्यीकरण का रसायन
करता रहा अपना काम चुपचाप
गलने-पिघलने लगी चौखटें, खिड़कियां, दीवारें
मां और पिताजी
नारियल तेल की गंध
अब मेरे घर का स्थायी भाव है