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नाव के पांव / जगदीश गुप्त

नीचे नीर का विस्तार
ऊपर बादलों की छाँव,
चल रही नाव;
चल रही नाव;
लहरों में छिपे है पाँव,
सचमुच मछलियों से कहीं लहरों में छिपे हैं पाँव ।

डाँड उठते और गिरते साथ
फैल जाते दो सलोने हाथ;
टपकती बूँदें, बनातीं वृत्त;
पाँव जल में लीन करते नृत्त;
फूल खिल जाते लहरियों पर,
घूमते घिर आसपास भुँवर;
हवा से उभरा हुआ कुछ पाल,
शीश पर आँचल लिया है डाल;
दूर नदिया के किनारे गाँव,
जा अही केवट-वधू सी नाव ।

घुल गया होगा महावर,
छिपे लहरों में अभी तक —
मछलियों की तरह चंचल पाँव ।