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निकलना होगा / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

मैं सामान्य जीवन जीना चाहती हूँ
जीव मात्र से प्रेम करना चाहती हूँ
एक इंसान की तरह
पर क्या करूँ
गली-नुक्कड़-बाज़ार-दफ्तर
बस-ट्रेन में अक्सर
मुझे पुरुष के भीतर छिपा
हिंसक जंगली जानवर नज़र आता है साफ साफ
उस पल उसकी आँखों से लगता है, निगल जाएगा
उसके साथ सहज कैसे और कब तक रह पाऊँ
और न रहूँ तो क्या करूँ कहाँ जाऊँ
ऐसे में हर बार मैं ही क्यों खुद को भंवर में डुबोऊँ
छोटी-छोटी बातों पर अपराध बोध से ग्रस्त मैं ही क्यों होऊँ

इस सबसे निकलना होगा