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निरवाही / प्रेमघन

होत निरौनी जबै धान के खेतन माहीं।
अवलि निम्न जातीय जुबति जन जुरि जहँ जाहीं॥
खेतन में जल भरयो शस्य उठि ऊपर लहरत।
चारहुँ ओरन हरियारी ही की छबि छहरत॥
भोरी भारी ग्राम बधू इक संग मिलि गावति।
इक सुर में रसभरी गीत झनकार मचावति॥
कहँ नागरी नवेली ए तीखे सुर पावैं।
रंग भूमि को “कोरस” सोरस कब बरसावैं॥
किती युवति तिन मैं अति रूप सलोनो पाए।
किए कज्जलित नैन सीस सिन्दूर सुहाए॥
धान खेत मैं बैठी चंचल चखनि नचावति।
बन मैं भटकी चकित मृगी सी छबि दरसावति॥
किते गाँव के छैल लटू ह्वै जिनहिं निहारैं।
तिनकी ताकनि मुसकुरानि लखि तन मन वारैं॥
तुच्छ बसन भूषन संग सोभा घनी लखावैं।
मनहुँ “लाल चीथड़ा बीच” सच मसल बनावैं॥
और लखावैं मनहुँ ईस को सम दरसी पन।
दियो रूप सम जिन ऊँचे अरु नीचन बीचन॥