पहिरैं गुदरी तन सेत असेत तिहूँ जग कों नितही निदरैं।
हरि रूप अनूप के चाहन को बरने करि हाथ सों आँगी धरैं।
बरजो कोऊ केतो निरादर कै रसलीन तऊ नहिं टारे टरैं।
सो देखौं लजीली मेरी अँखियाँ पलको न लगैं टकटोई करैं॥96॥
पहिरैं गुदरी तन सेत असेत तिहूँ जग कों नितही निदरैं।
हरि रूप अनूप के चाहन को बरने करि हाथ सों आँगी धरैं।
बरजो कोऊ केतो निरादर कै रसलीन तऊ नहिं टारे टरैं।
सो देखौं लजीली मेरी अँखियाँ पलको न लगैं टकटोई करैं॥96॥