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पद 171 से 180 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1

पद संख्या 171 तथा 172

 (171)
कीजै मोको जमजातनामई।
राम! तुमसे सुचि सुहृद साहिबहिं , मैं सठ पीठि दई।1।

गरभबास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों।
जड़हिं बिबेक, सुसील खलहिं, अपराधिहिं आदर दीन्हों।2।

कपट करौं अंतरजामिहुँ सों, अघ ब्यापकहिं दुरावौं।
ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं।3।

 उदर भरौं किंकर कहाई बेंच्यौ बिषयनि हाथ हियो है।
मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि के छोह कियो है।4।

 पल-पलके उपकार रावरे जानि बूझि सुनि नीके।
 भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके।5।

 स्वामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज साइँ-द्रोहाई।
 मैं मति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरूआई।6।

 एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये अरू कहिहैं।
तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं।7।
 
(172)
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो।1।

 जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
पर-हित-निरत- निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो।2।

परूष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।।
 बिगत मान, सम सीतल मन , पर-गुन नहिं दोष कहौंगो।3।

 परिहरि देह-जनित चिंता, दुख -सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो।4।