पद 171 से 180 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2
पद संख्या 173 तथा 174
(173)
नाहिंन आवत आन भरोसो।
यहि कलिकाल सकल साधनतरू है स्त्रम-फलनि फरो सो।1।
तप, तीरथ, उपवास, दान, मख जेहि जो रूचै करो सो।
पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि -भरि बेद परोसो।2।
आगम-बिधि जप-जाग करत नर सरत न काज खरो सो।
सुख सपनेहु न जोग -सिधि- साधन , रोग बियोग धरो सो।3।
काम, क्रोध, मद , लोभ,मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो।
बिगरत मन संन्यास लेत , जल नावत आम घरो सो।4।
बहु मत मुनि पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो।
गुरू कह्यो राम-भजन नीको मोहिं लगत राज-डगरो सो।5।
तुलसी बिनु परतीति , प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो।
रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो।6।
(174)
जाके प्रिय न राम बैदेही।
तजिये ताहि(सो छांडिये) कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही।1।
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरू तज्यो कंत ब्रज- बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी।2।
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं।3।
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासों होय सनेह राम-पद , एतो मतो हमारो।4।