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परछाईं / प्रेमशंकर रघुवंशी

पेड़-पौधों-पहाड़ों
पठारों वनों
यहाँ तक कि
चींटियों की भी होती परछाईं
लहरों पर हवा की
दूब पर किरणों की
झील पर अकाश की

हर उपस्थिति के साथ
उपस्थित है परछाईं
जिनमें छिपे होते डर
और जिन्हें
कितने ही गोते लगा
मुश्किल है उलीचना
जो अपनी ही
परछाइयों पर सवार होकर
सामने देखते चलते हैं
वे ही अपने गंतव्य के
बहुत क़रीब होते हैं।