परकीया-उदाहरण
निज दुति देह दिखाइ कै हरै और के प्रान।
नेह चहति निसि दिनि रहै सुंदरि दीप समान॥212॥
परकीया के उभय भेद
ऊढ़ा-अनूढ़ा
ऊढ़ा ब्याही और सों करै और सों प्रीति।
बिनु ब्याही परपुरुष रत यहै अनूढ़ा रीति॥213॥
ऊढ़ा-उदाहरण
नैन अचल चल मंज तिय दोऊ विधि मनरंज।
निज पति लागत कंज अरु उपपति लागत खंज॥214॥
सासु खरी डाहति रहै ननदी जुदी रिसाइ।
नेह लगत हरि सों सबै रूखी भई बनाइ॥215॥
अनूढ़ा-यथा
रूखे होतेहु बासु लैं चोरी देति जनाइ।
बिना चढ़े सिर नेह ज्यौ चढ़यौ नेह सिर आइ॥216॥
ब्याह सुनति उर दाह ते खरी होति बेहाल।
नेह दही तैं ल्याइ कै नेह दही मैं बाल॥217॥
लरिकाई सबते भली जामै फिरिहि निसंक।
अब आई यह वैस जँह निकसत लगै कलंक॥218॥
द्वितीय भेद
असाध्या परकीया-लक्षण
पुन परकीया उभै बिधि बरनत हैं कवि लोइ।
एक असाभ्या दूसरी सुखसाध्या जिय जोइ॥219॥
प्रेम लगै नहिं मिलि सकै सोइ असाध्या जानि।
चहै मिलन जो सहज ही ते सुखसाध्या मानि॥220॥
बुधिबल मन की लाग कौ प्रगट दोष ठहराइ।
परकीया ही मैं धरै असाध्यादि कौं लाइ॥221॥
कोउ असाध्यादिकन को बरनत तीनि प्रकार।
प्रथम असाध्य दुसाध्य अरु सुखसाध्या निरधार॥222॥
दुतिय असाध्य दुसाध्य है धरम सभीता आदि।
वृद्ध बधू आदिक रहत सुखसाध्या कवि बादि॥223॥
असाध्या परकीया
प्रथम भेद-सभीता असाध्या
अधर धरै किन पै नहीं अपनो धर्म गँवाइ।
बंसी लौं तजि बंस कौं मोहन मिलिहौं जाइ॥224॥
द्वितीय भेद
गुरुजनसभीता-असाध्या
स्याम मधुप निसि दिन बसै हिये तामरस माहिं।
गुरुजन उर दुरजन भये देखन देत न छाहिं॥225॥
तृतीय भेद
दूतीवर्जिता-असाध्या
जो निज हियहूँ सो कहति मो जिय खरो डराइ।
सो अन्तर दुख और सों कहौं कवनि बिधि जाइ॥226॥
चतुर्थ भेद
अतिकांता असाध्या
सजल स्याम निसि स्याम मैं सेत जोनि मैं बाल।
दुहु पटधनु मैं तन तड़ित कैहू दुरति न लाल॥227॥
पंचम भेद
खलपृष्ठ असाध्या
समुझि बोलिये बात यह खरो चवाई गाँउ।
नाउ लेत हरि को अली हर में दीजत पाँउ॥228॥
सुखसाध्या
प्रथम भेद-वृद्धबधू सुखसाध्या
बृद्ध कामिनी काम ते सुनहु धम मैं पाइ।
नेवर झमकावत फिरै देवर के ढिग जाइ॥229॥
द्वितीय भेद
बालबधु सुखसाध्या
जो छतियाँ बारे ललै नहिं दरसी कर लाइ।
चहति परोसी हाथ ते खरी मसोसी जाइ॥230॥
तृतीय भेद
नपुंसकबधू-सुखसाध्या
तुम साँचो बिर रतिक ते सुत उपजै जेहि आइ।
नाम हेत फल मांगिये पति देवतन मनाइ॥231॥
चतुर्थ भेद
बिधवाबधू सुखसाध्या
ओप भरी निज रूप छबि देखत दरपन माँह।
रोइ नाह को काम के हाथ गहाई बाँह॥232॥
कहा भयो नथ लौ तजे सब सिंगार जो बाम।
तुव तन तजहि न नेकहू मन हरिबे को काम॥233॥
पंचम-भेद
गुनीबधू-सुखसाध्या
बाँकी तानन गाइ कै टाँकी सी हिय देइ।
ढाँकी छतियाँ को कछू झाँकी दै जिय लेइ॥234॥
गावति है सुरताल सों नागरि ढो बजाइ।
स्रुति धारन के मन रही तारन माँहि नचाइ॥235॥
षष्ठ भेद
गुनरिझावती-सुखसाध्या
होत राग बस एक यह सब जग जानत ऐन।
ये रागहु बसि करति है उलरि ऐन तिय नैन॥236॥
या रमनी की बात कछु मन समझी नहिं जाइ।
रीझि रही है बीन सुनि कै परबीन रिझाइ॥237॥
सप्तम भेद
सेवकबधू-सुखसाध्या
बिकल होनिनहिं देउँगी अपने प्रभु को जीय।
दिनि सेवा करि पिय अरु निसि सेवा करि तीय॥238॥
अष्टम भेद
निरंकुस-सुखसाध्या
जोबनवन्ती जो न डरु पिय को माने नैक।
और तिया छल छंद पढ़ि गावैं तान अनेक॥239॥
देवन पूजन जाहि अरु करै बाग को सैल।
और निरअंकुस नारि जे फिरै तियन की गैल॥240॥
जेहि पिय अटक्यौ और सों अति रोगी की नारि।
और दुसरी बात यह सुखसाध्या निरधारि॥241॥
परकीया के दो भेद और नाम
लक्षण-कथन
ऊढ़ अनूढ़ा दुहुन मैं ये द्वै भेद बिचारि।
पहिले अदभूता बहुरि अदभूदिता निहारि॥242॥
मिलन पेच अपने करै अदभूता तिहि जानि।
जो नायक पेचनि मिलै उदभूदिता बखानि॥243॥
अदभूता-उदाहरण
एते हैं रँग लाल ते करै न कौन उपाइ।
बिनु पीतमबर पीर नहिं इन आँखिन की जाइ॥244॥
नायिका स्वयंदूती
मो अँगिया तन तकि रहे क्यौं हरि दीठि लगाइ।
जौ नीकी है तो तुमैं दैंहौं आजु पठाइ॥245॥
सुधि न लेति यहि बाग की मालिबहू रिस ठानि।
बनमाली क्यौं थभि रहेे कृपा कीजिए आनि॥246॥
उद्भूदिता-उदाहरण
दीपक लौं काँपति हुनी ललन होति जँह बात।
तही चलत अब फूल लौं बिगसन लाग्यौ गात॥247॥
अवस्था भेद के अनुसार
षट बिधि परकीया-कथन
उद्बुद्धादिक दुहुन मैं यै गुपुतादिक जानि।
ते सब षट बिधि होत हैं यह सब करत बखान॥248॥
गुप्त सुरति गोपन करै भयो होइगो होत।
करै विद्ग्धा चतुरई निज क्रम माँझ उदोत॥249॥
जाको हित पर पुरुष सों प्रकट होइ अनयास।
वहै लच्छिता सो त्रिविध हेत सुरति परकास॥250॥
कुलटा ताको जानिये जो चाहै बहु मित्र।
इच्छा बात भये मुदित मुदिता को यह चित्र॥251॥
बिनसै ठौर सहेट कौ अरु सँकेत सन्देह।
जाइ न समै सँकेत तिहु दुख अनसैना एह॥252॥
प्रथम भेद
वर्त्तमान सुरतिगोपना-उदाहरण
अलि हौं गुंजन हित गई कुंजन पुंजन आजु।
कंट लगे बस्तर फटे अंग कटे बिनु काजु॥253॥
प्रत्यक्षमान सुरति गोपना-उदाहरण
हौं न जाउँगी कैसेहूँ फूल लैन को बाग।
मलिन होइगो गात यह लागे पुहुप पराग॥254॥
वृतवृत्त क्षमामान
सुरतिगोपना-उदाहरण
जेहि गुंजन तोरत परे ये खरोंट तन आइ।
कहा करो अब ल्याइहौं फिरि तेरे हित जाइ॥255॥
रे यह ढोटा कौन को मेरो मही चुराइ।
मुँह सुँघाइ कै आपनो साह भयौ है जाइ॥256॥
बड़ो अनोखो छोहरो देखौ री यह आनि।
मेरी नीबी पाँति जिनि तोरी गेंदा जानि॥257॥
ह्वै अचेत यह चेत मैं गई हुती बौराइ।
प्रेम जानि इन हत कै झार्यौ मोहि बनाइ॥258॥
लखति कहा हौ सो न जौ करि काहू सो प्रीति।
उदर लगावत नेह मिसि रचि राख्यो विपरीति॥259॥
द्वितीय भेद-विदग्धा
उसमें स्वयंदूती-बचन
विदग्धा-विवेक-कथन
घर है बचन विदग्ध अरु स्वयंदूति कौ एक।
याते है इन दुहुन मैं करिबो कठिन बिबेक॥260॥
यही बात को समुझि कै कवि अपने मन माहिं।
जो राखति हैं एक को दूजी राखत नाहिं॥261॥
जिन राख्यो हैं दुहुन को तिनकर यहै बिचार।
इन दुहुमन कै भेद मैं यह कीन्हौं विस्तार॥262॥
जो तिय सैन सँकेत की करैं मीत को कोइ।
काहू को दै बीच तौ बचन विदग्धा होइ॥263॥
करै सैन संकेत वा रचै नई जो प्रीति।
नित अंतर तिय पुरुष सों स्वयंदूति विधि रीति॥264॥
क्रिय विदग्ध अरु बोध कौ याही बिधि मिलि जात।
तिनि दुनहुन के भैद मैं जानि लेहु यह बात॥265॥
क्रियबिदग्ध करि चतुरई करै आपनौ काम।
सैन बुझावै करि क्रिया सो बोधक अभिराम॥266॥
बिदग्धा में वचनविदग्धा-उदाहरण
रे रंगिया करि राखिहौं सकल रंग के काज।
साँझ परे हौं आइहौं स्याम बसन को आज॥267॥
स्याम बार पग परत सुनु बाम कह्यौ मुसुकाइ।
लगो न नेह उठाइतौ निसि लौं नेह सुखाइ॥268॥
क्रियाविदग्धा-उदाहरण
थाकित भई हौं हाल हीं लखि चरित्र यहि बाल।
डारि उरबसी लाल की लखै उरबसी लाल॥269॥
खिनि खिनि घटिको काढ़ि तीय मुरि मुरि लखि लखि नाहिं।
कूप सलिल घट मैं भरै कूप सलिल घट माहिं॥270॥
क्रियाविदग्धा
पतिवंचिता-लक्षण
पति देखति ही होय जो उपपति के रखलीन।
ताहि कहत पतिवंचिता जे पंडित परबीन॥271॥
रोग ठानि कै ढीठ तिय निपुन वैद करि ईठि।
बैठी पति सों पीठि दै जोरि ईठि सों दीठि॥272॥
क्रियाविदग्धा में दूतीवंचिता
दूती सों सब तूति करि मिलै न ताहि जताइ।
सोइ वंचिता दुतिका यह बरनत कविराइ॥273॥
उदाहरण
दूतिहिं जो छलि आपुते मो सँग ल्यायौ नेह।
तू अछेह इन चतुरई अति कीन्हौ हिय गेह॥274॥
बारेन की मति ते भई बूढ़िन की मति नीच।
बीच पारि कै मोहिं इन मो सो पारयौ बीच॥275॥
तृतीय भेद-लक्षिता
उसमें हेतुलक्षिता
तेरि ओर चितवन हि जब हरि दीन्हों मुसुकाइ।
तूँ कत दरन धरे अधर दीजै भेद बताइ॥276॥
सुरतिलक्षिता-उदाहरण
को है माली चतुर जिन सरस सींचि रस जाल।
या कंचन की बेलि मैं मुकुत लगाये लाल॥277॥
कौन महावत जोर जिन बसि करिबे की चाइ।
तुव जोबन गज कुंभ पै अंकुस दीन्हौं आइ॥278॥
प्रकाशलक्षिता-उदाहरण
प्रगट भई तुव रूप की नेह लगत ही जोति।
सब जग जानत नेह ते बालन सोभा होति॥279॥
प्रकाशलक्षिता-द्वितीय मत से
जेहि कारो पट पीयरो सो मेरो मन माहिं।
आवत लोगनि के बदन कारी पीरी छाहिं॥280॥
चतुर्थ भेद-कुलटा उदाहरण
बिधि सुनार अद्भुत गढ़ी तिय की सुबरन देह।
जेहि अनेक नग जटन कौ तुलित एक ही गेह॥281॥
पति समान सब जग बसै कामवती मन माहिं।
ज्यौं मुदाज सिल मैं सबै होत भोर की छाँहिं॥282॥
पंचम भेद
मुदिता-उदाहरण
काल्हि ननद घर काज है जैहें सब मिलि प्रात।
चलत बात पर फूल सो फूलि गयौ सब गात॥283॥
बधू रहै घर हम चलैं चलत बात रसलीन।
तरकी कदली पात लौं तिय कंचुकी नबीन॥284॥
षष्ठ भेद-अनुसैना मध्यम
उसमें प्रथम भेद-स्थानविघटना उदाहरण
बन बीतत बीतो जो कछु कहो जात सो न हाल।
ऊख ऊँखारति निपटहीं सूखि गयो मुख बाल॥285॥
पावस देन सहाहिये पति ऊपर पति सोइ।
दीबो कौन बसंत को जो दीन्हौं पति जोइ॥286॥
द्वितीय भेद
भाव-संकेतसोचितः उदाहरण
करि उजारि नैहर चली सोचत कौन सुभाइ।
देंउ जाइ ससुरारि के ऊजर गेहु बसाइ॥287॥
फूल माल मो करि चितै तू कत भई उदास।
कहा भयो तू सासुरे जो फुलवारी पास॥288॥
तृतीय भेद-अनुसयना
उसमें प्रथम भेद-स्वैनधिष्ठित संकेत रचनानुगवन
तीसरि अनुसैना विषै प्रथम भेद बह गाइ।
मीत गयो संकेत धन सकत न केहू जाइ॥286॥
गुहत माल नँदलाल जेहि काल सुनी बन जात।
मदन ज्वाल की जालते छयो बाल को गात॥290॥
बंसी लै मनु मीन कौ खींचत बंसी टेरि।
निकसि चलनि को धाम तें वा मन पावत फेरि॥291॥
द्वितीय भेद स्थानाधिष्ठित संकेत
वर्णनवनुगवन अनुसयना
पुनि अनुसयना त्रितिय मैं इहै भेदि कहि जाइ।
जो पिय पास सँकेत के चिह्न लखे पछिताइ॥292॥
उदाहरण
घरी टरी टरी कहूँ सोचन भरी विसेखि।
परी छरी सी ह्वै रही हरी छरी करि देखि॥293॥
फूलछरी संकेत की मोहन कर मैं पाइ।
अवसर चूकी डोमनी सों रमनी पछताइ॥294॥
पिय मनोरथा
नैन चहै मुख देखिये मनसों कछू दुराइ।
मन चाहत दृग मूँदि कै लीजै हिये लगाइ॥295॥
परकीया का सुरतारंभ
मो कर दोऊ भरि दिये मनचीते फलु आजु।
अलप वृक्ष की छाँह इनि किन्हें कलपतरु काजु॥296॥
बैन मिलत मुख में बसी मुखु बोलत हिय आइ।
हिय लावत कछु सुधि नहीं कित गइ लाज लगाइ॥297॥
परकीया की सुरति
यौं सँकेत सुख लखत हरि पिय आतुर गरि ल्याइ।
ज्यौं चोरी गुर पाइ कै तुरत लीजिये खाइ॥298॥
राधा तन फूलन मिल्यौ पातन हरि गो गात।
नूपुर धुनि खग धुनि मिली भले बने सब भाँत॥299॥
परकीया का सुरतांत
फूल माल सो बाल जो मैं ल्याइ उभराइ।
ऐसी अंग लगाइ सो कत डारी कुँभिलाइ॥300॥
पट झारति पोंछति बदन सुंदरि दरपन हेरि।
दूती सों अनुखाति है लाजवती दृग फेरि॥301॥
सब जग हार्यौ ये अलख काहू को न लखात।
कुंजन मैं रति कै दोऊ पंछी लौं उड़ि जात॥302॥
स्वकीया-परकीया
बिना नेम कथन
सुकिया परकीया दोऊ बिना नेम परमान।
कामवती अनुरागिनी प्रेम असकता जान॥303॥
कामवती उदाहरण
कत मो कर लावत कुचनि कत गहियत लपटाय।
आली चाटे ओस के कैसै ताप बुझाय॥304॥
अनुरागिनी-उदाहरण
पिय कुंडल को चिह्नजो परयौ बाल की बाँह।
खिन चूमति, खिन लखि रहत खिन लावत उर माँह॥305॥
नाइ नाइ जेहि चषक में मधु पिय दयो पियाइ।
बार बार तिय चखति है तेहि अधरनि पै ल्याइ॥306॥
प्रेमआसक्ता उदाहरण
ये रस लोभी दृग सदा रोके हूँ अकुलाइ।
मन भावन सुख कमल लखि परत भँवर लौं धाइ॥307॥
हरि लखि इनि नैननि लये करिकै दुहूँ सुभाइ।
खींचे आवत बल किये छुटे लगत चढ़ जाइ॥308॥
अधिक रूप दरसाइ इनि दृग दुतन मिलि साथ।
यो मन मानिक सेत हो बेचो हरि के हाथ॥309॥
सामान्या-भेद
गरब कोटि राखै तऊ लहै लोटि के भाइ।
दाम मोट ये लेति हैं काम चोट उपजाइ॥310॥
ल्याये पायल है भली परी रहैगी पाइ।
लाल दीजिये माल जो राखै हिय सो लाइ॥311॥
मुकुत माल लखि धनि कह्यौ यह अचिरिजु है नाइ।
गंग तिहारे उर बसी शिव मेरे उर माह॥312॥
मध्यस्वतंत्र-सामान्या
सिगरी बार बधून मैं प्रभुता लहै जो बाम।
अपनी इच्छा सो रमै ताहि सुतंत्रा नाम॥313॥
उदाहरण
रसिक पाइ मन मोद सों रचि सुभनाद विनोद।
बैठि मोद मैं धनि करति छलि बलि सों धन मोद॥314॥
द्वितीय-जननी आधीना
बार बिलासिनि होइ जो जननी के आधीन।
कै गुरजन सासन रमै सो जननी आधीन॥315॥
उदाहरण
परहथ बसि ये निरदई धन भोजन के चाइ।
धनी प्रान पच्छीन को हनत कुही लौ धाइ॥319॥
तीसरी-नेमता सामान्या
दिन प्रमान कै दरबि दै जो तिय राखी होइ।
बारिबधू के भेद मैं कही नेमता सोइ॥।317॥
यथा
तिय के नित वित देन लौं चितहि बढ़ावत नाइ।
हेम नेम घट जात ही प्रेम नेम घट जाइ॥318॥
चतुर्थ-प्रेमदुःखिता
एक ठौर बसि प्रेम जो होइ बार तिय आनि।
बिछुरत ही दुख लहहि सो प्रेमदुःखिता जानि॥319॥
मोहिं रावरे हाथ दै धन कीन्हौं जिन हाथ।
अब छूटत वह पापिनी छुट्यौ न वाको साथ॥320॥
वित हित बाढ़त नेह यह बँध्यौ जीय सुख पाइ।
अब अलि छूटत होत दुख कीजै कौन उपाइ॥321॥
सामान्या का सुरतिआरंभ
बरनि कहत है बार तिय रति आरंभन कोइ।
सुख औरनि की सुरति को याके प्रथमहि होइ॥322॥
सामान्या की सुरति
सुरति रंगिनी यों लपकि धनी-गरे लपटाइ।
ज्यो तरंगिनी सिन्धु को करि तरंग मिलि जाइ॥323॥
सामान्या का सुरतांत
नये रसिक देखे नये लेत तियन के प्रान।
काह कीजिये कनक लै जातें टूटे कान॥324॥
ज्यौं आवत निसि मीत को चितवत रही लजाइ।
त्यौं अब धनहित ह्वै खरी माँगत चित सकुचाइ॥325॥
सुखहित कै तन आपने चित राखति नित गोइ।
करि धन अपने हाथ फिरि धन अपनी मति होइ॥326॥