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पानी का एक कारवाँ घर-घर में आ गया / गोविन्द गुलशन

पानी का एक कारवाँ घर-घर में आ गया
सैलाब जाने कैसा समन्दर में आ गया

इक दर्द की कराह से उबरे नहीं थे हम
इक और दर्द अपने मुक़द्दर में आ गया

शीशे को टूट जाना था टूटा नहीं मगर
इक और निशान आपके पत्थर में आ गया

हमराह होने वाला था जब मैं गुनाह के
किरदार मेरा बराबर में आ गया

ईजाद कर लिए कई सामान मौत के
इंसान किस अज़ाब के चक्कर में आ गया