Last modified on 11 सितम्बर 2011, at 14:31

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ९

(59)

आँख का जल

पास अपने कोई पापी।
नहीं पाता पावन सोता।
बड़े ही बु-बु धाब्बे।
अधाम प्राणी कैसे धोता॥1॥

कालिमामय कोई कैसे।
कालिमाएँ अपनी खोता।
जलन जी की कैसे जाती।
जो न आँखों का जल होता॥2॥

(60)

आँसू का बरसना

जी तड़पता है तो तड़पे।
पता क्यों पाते हैं आँसू।
नहीं रुकते हैं रोके से।
चले दिखलाते हैं आँसू॥1॥

आज क्यों मेरी आँखों में।
उमड़ते आते हैं आँसू।
लगाकर होड़ बादलों से।
क्यों बरस जाते हैं आँसू॥2॥

(61)

आँसू और धूल

बूँद बन गये मोतियों-से।
दृगों में हिलते हैं आँसू।
किसी को रस देने के लिए।
आम-से छिलते हैं आँसू॥1॥

प्यारेवाली बहु आँखों में।
बहुत ही खिलते हैं आँसू।
एक दिन ऐसा आता है।
धूल में मिलते हैं आँसू॥2॥

(62)

आँख भर आना

सदय निर्दय को करता है।
लोचनों में लाया आँसू।
कठिन को मृदुल बनाता है।
जन-नयन में छाया आँसू॥1॥

द्रवित कर देता है चित को।
दृगों में दिखलाया आँसू।
उरों में भरता है करुणा।
आँख में भर आया आँसू॥2॥

(63)

आँसू का तार

रात बीते दिन आता है।
धूप में मिलती है छाया।
तब कहाँ रह जायेगा दुख।
जहाँ मुख सुख ने दिखलाया॥1॥

चाहिए धीरज भी रखना।
बहुत ही जी क्यों घबराया।
पता पा जायेंगे दिल का।
तार आँसू का लग पाया॥2॥

(64)

आँसू का चलना

विरह की क्यों कटतीं रातें।
बीतते दुख के दिन कैसे।
जलन किस तरह दूर होती।
क्यों भला मिलते सुख वैसे॥1॥

ह बनकर क्यों हो पाते।
कलेजे जैसे-के-तैसे।
न चलते जो वैसे आँसू।
मिले सोते बहते जैसे॥2॥

(65)

आँख की पट्टी

यह कभी समझ नहीं पाते।
वस्तु मीठी है या खट्टी।
पर कमर कस सब लोगों को।
पढ़ाते रहते हैं पट्टी॥1॥

बड़ाई अब इसमें ही है।
बनेंगे धाखे की टट्टी।
भला कैसे खुल पाएँगी।
बँधी है आँखों पर पट्टी॥2॥

(66)

आँख में उँगली

बगल में बैठ-बैठ करके।
लगाते रहते हैं बगली।
पर बताते ही रहते हैं।
और की दौलत को कँगली॥1॥

समझ करतूतों को देखे।
बनी ही रहती है पगली।
पर चलेंगे उलटी चालें।
करेंगे आँखों में उँगली॥2॥

(67)

जी की गाँठ

ऐंठ दिखलाकर ऐंठेंगे।
सुनेंगे बात नहीं धी की।
बहुत ही गहरी हो रंगत।
पर कहेंगे उसको फीकी॥1॥

पेट जलता ही रहता हो।
पूरियाँ खायेंगे घी की।
करेंगे गँठजोड़ा तो भी।
खुलेगी गाँठ नहीं जी की॥2॥

(68)

काल और समय

आँख में जगह मिली जिसको।
कलेजे में जो पल पाया।
अंक में कल कपोल ने ले।
जिसे मोती-सा चमकाया॥1॥

समय की बात निराली है।
काल कब किसका कहलाया।
वही आँसू भूतल पर गिर।
धूल में मिलता दिखलाया॥2॥