पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - १०
(69)
आँसू और दिल
आँसुओ, यह बतला दो, क्यों।
कभी झरनों-सा झरते हो।
कभी हो झड़ी लगा देते।
कभी बेतरह बिखरते हो॥1॥
गिर गये जब आँखों से तब।
किसलिए उनको भरते हो।
निकल आये दिल से, तब क्यों।
फिर जगह दिल में करते हो॥2॥
(70)
कोई दिल
आग को तब बुझते देखा।
जब बुझाये उसको पानी।
भागना जलते को तजकर।
बताई गयी बेइमानी॥1॥
तुम्हें आता देखे आँसू।
दुखी हो आँख बहुत रोई।
निकल जल रहे कलेजे से।
खोजते हो क्या दिल कोई॥2॥
(71)
पानी खोना
कभी है चित्त सुखित होता।
दुखों से सुख का मुख धाोकर।
चमकने लगता है सोना।
आँच खाकर निर्मल होकर॥1॥
कलेजा होता है ठंढा।
बहाकर आँसू रो-रोकर।
आग जी की बुझ जाती है।
बड़ा प्यारा पानी खोकर॥2॥
(72)
आँख और कालिमा
कीत्तिक कर वर वितान भव में।
कान्त सितता से तनती हैं।
दिखा स्वाभाविक सुन्दरता।
सरस भावों में सनती हैं॥1॥
लालिमा की ललिताभा से।
रुचिर-रुचियों को जनती हैं।
कालिमा से कलंकिता हो।
कलमुँही आँखें बनती हैं॥2॥
(73)
आँसू छनना
कपोलों पर गिर पड़ते हैं।
कभी काजल से सनते हैं।
बाल के फंदों में फँसकर।
बेड़ियाँ कभी पहनते हैं॥1॥
बरौनी से छिद जाते हैं।
कभी बेबस-से बनते हैं।
कौन-सी छान-बीन में पड़।
आँख से आँसू छनते हैं॥2॥
(74)
दिल और आँसू
पसीजे उन्हें देख वे भी।
सितम जो करते रहते हैं।
बहे उनके वे भी पिघले।
संगदिल जिनको कहते हैं॥1॥
जले तन को जल बनते हैं।
कलेजा तर कर देते हैं।
आँख में भर-भरकर आँसू।
दिलों में घर कर लेते हैं॥2॥
(75)
तिल और आँसू
सामना दुख-लहरों का कर।
सुखों की नावें खेते हैं।
लगे रहते हैं त्यों हित में।
विहग ज्यों अण्डे सेतें हैं॥1॥
दूर कर बला दूसरों की।
बलाएँ सिर पर लेते हैं।
आँख के तिल से मिल आँसू।
मोम सिल को कर देते हैं॥2॥
(76)
निकलें आँसू
मकर के हाथ मोह में पड़।
भूल करके बिक लें आँसू।
हँसी के फंदों में फँसकर।
वहाँ कुछ क्षण टिक लें आँसू॥1॥
कहाँ किसने उनको छेंका।
कुछ घड़ी तक छिंक ले आँसू।
छुड़ाना है दुख से दिल को।
क्यों न दृग से निकलें आँसू॥2॥
(77)
बूँदों में
बहुत-से खेल मिले महि के।
खेलाड़ी की कुछ कूदों में।
भरा है भव का मीठापन।
फलों के मधुमय गूदों में॥1॥
असुख ऊँचे पहाड़ देखे।
छिपे कुछ छोटे तूदों में।
रहा है दुख-सागर लहरा।
आँसुओं की कुछ बूँदों में॥2॥
(78)
दिव्य दृष्टि
किसी में हास मिला हँसता।
किसी में दुख-दल दिखलाया।
किसी में विरह बिलखता था।
किसी में पीड़ा को पाया॥1॥
किसी में खिंची हुई देखी।
कलह की बड़ी कुटिल खा।
आँसुओं की बूँदों को जब।
दृष्टि को दिव्य बना देखा॥2॥