बिरह बढ़ावन या सावन की रजनी मैं,
जीगन के गन को अकास में प्रकास है।
चंचला चपल चमकत चहुँ ओर चख,
चितवन हूँ को न मिलत अवकास है॥
प्रेमघन घन की घटा है घोर घहरात,
घहरात बूँदैं उपजाय उर त्रास है।
पी कहाँ पपीहा साँची कहन भटू है अब,
परदेसी पिय की न आवन की आस है॥