पी कहाँ, रे विश्व ! मैंने पी कहाँ !
जो कभी मुझको पिलाता —
पी कहाँ !
पी कहाँ ! !
साथ मेरा और उनका
युग रहा
किन्तु तब भी हृदय ने
रोकर कहा —
आग जो अन्दर लगी
उभरी कहाँ !
पी कहाँ ! !
रूप का प्यासा, बुझी है
प्यास कब,
मन रहा कहता, हुआ
विश्वास कब —
’आदि-पीड़ित, मोल पीड़ा
ली कहाँ !’
पी कहाँ ! !
आज भी मय है, मगर कम —
लाल है,
जो उसे भी कुछ उन्हीं का
ख़याल है,
लाल आँखें हैं मगर
लाली कहाँ !
पी कहाँ, रे विश्व !
मैंने पी कहाँ ! !