शब्दों से मसले हल करने वाले बहरूपिए समय में
मैं तुम्हें शब्दों में प्यार नहीं करूँगा
नीम अँधेरे में डूबे कमरे के रोशन छिद्र से
नहीं भेजूँगा वह ख़त
जिस पर अंकित होगा
पान के आकार का एक दिल
और एक वाक्य में
समाए होंगे सभ्यता के तमाम फ़लसफ़े
कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
मैं खड़ा रहूँगा अनंत प्रकाश वर्षों की यात्रा में
वहीं उसी खिड़की के समीप
जहाँ से तुम्हारी स्याह ज़ुल्फ़ों के मेघ दिखते हैं
हवा के साथ तैरते-चलते
चुप और बेआवाज़
नहीं भेजूँगा हवा में लहराता कोई चुंबन
किसी अकेले पेड़ से
पालतू खरगोश के नरम रोएँ से
या आइने से भी नहीं कहूँगा
कि कर रहा हूँ मैं
सभ्यता का सबसे पवित्र
और सबसे ख़तरनाक कर्म...