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प्रति-संसार / दिनेश कुमार शुक्ल

बारिश में अब वह झड़ी नहीं
सर्दी भी उतनी कड़ी नहीं
लू में भी अब वह बात नहीं
जो रस भरती खरबूजे में
मौसम कुछ इतना बदला है

बातों में अब वह बात नहीं
जो रात-रात भर चलती थीं
जिनके चलते जीवन के बीहड़
कड़े कोस कट जाते थे

रातों में उतनी रात नहीं
गहरी निद्रा के सपनों का
जो प्रति-संसार रचाती थीं
जिसमें कुछ कविता होती थी
जिसमें कुछ नाटक होता था
रातों से पाकर नया जन्म
दिन हँसते-खिलते आते थे

तब पत्थर में भी पानी था
जिनसे फूटा करते झरने
तब कड़ी नजर की आँखों में
भी करुणा का जल रहता था
अपनी दुनिया का सरोकार
बसता था उन आँखों में भी

तब धैर्य धरा में था लेकिन
वह पाप देख फट जाती थी
उसमें साम्राज्य समा जाते,
राजा के शोषण के विरोध
में राज्यलक्ष्मी जंगल में
रातों को रोया करती थी
जिससे जनता जग जाती थी
तब राजा के महलों में घुस
कर भुस भर देते थे किसान!

तब चतुर चितेरे होते थे
रंगों की अनगिन आभायें
वे जीवन से ले आते थे
मधुमाखी जैसे फूलों से
मधु संचय करती रहती है
वह सदारंग हँसते रहते
वह अदारंग कहते रहते
वह अदा आज तक जिन्दा है
कितनी शताब्दियाँ बीत गईं

भाषा में शब्द भरे थे तब
तब शब्द अर्थ के सागर थे
भाषा के बहते जल में तब
जीवन के दुख धुल जाते थे
तुलसी कबीर मीरा से तब
कविता खुद मिलने आती थी

तब खंजन आया करते थे
धरती के परले छोरों से
चिड़ियों के आने-जाने से
तब मौसम बदला करता था
सुनता हूँ ऐसे भी दिन थे
जब लोग कहा करते थे
इससे भी अच्छे दिन आयेंगे

सचमुच क्या थे भी ऐसे दिन?
जो जानकार हैं कहते हैं
ऐसे तो कभी नहीं थे दिन
हाँ, स्वप्निल आँखों में उनकी
आभा कुछ यूँ ही रहती थी
उस आभा में लेकिन भविष्य
तब जगमग जगमग रहता था