बाकस रहे ऊ डाकखाना के
जे बनल रहे लोहा के पतरन से
जहवाँ दिन बीतते जात रहीं
चिट्ठी पेठवे तोहरा नाँव
आँधियन के पेवन से
फार ले आवत रहीं कागत के कवनो पन्ना
धूपा से माँग ले आवत रहीं
चमचमात रहत पिनसिन
आ सुनसान रेत में बइठ के
प्रलय के दिनन में
कुछ लिखत खानी गढ़त रहत रहीं
सुघर कवितन के
जरा मल देले होखे
कवनो शाम तोहरा के ऊ लोग
हमरा चिट्ठीयन लेखा!