प्रसंग / लक्ष्मीकान्त मुकुल

आजायबघर को देखते हुए
जब कभी आती हैं हमें झपकियां
चले जाते दूर कहीं दूर
बचपन के दिनों की
मां की कहानियों में
किसी दानव के अहाते में पैर रखते ही
थरथरा जाते राजकुमार के पांव
और हमारे भी
या कभी भाग जाते
मनिहारिन के गांव की
अंतहीन गलियों में
जहां बगल से गुजरती थी नदी
जिसमें डूबकियां लगाते ही खो जाया करते थे
नींद उचटते ही
बदल चुकी होती है पूरी दुनिया
हमारी पहचान खत्म हो चुकी होती है
हमें कोई काम नहीं मिल पा रहा होता
हमारे बच्चे भूल गये होते हैं
स्कूल से निकलते हुए
हमारी घरनियां लूट गयी होती हैं
कितनी झूठी आशाएं थीं
मां की वे कहानियां
सपफेद झूठ
जिनको आज संजोते वक्त
सपनों के मोती बिखर जाते हैं
अनायास ही।

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