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प्राकृतिक आपदा का सच / शरद कोकास

सत्य इतनी अधिक भूमिकाओं में आता
कि उसका असली रूप पहचान पाना मुश्किल
अपने अभिनय से हर बार मुग्ध करता हुआ
शांत जीवन के विस्मय में प्रवेश करता था वह

मनुष्य के भौतिक विकास नामक नाटक में इस बार
स्वप्न को स्थानापन्न करता प्रकट हुआ वह
दृश्य में अब रेडियो से आती आवाज़ नाकाफ़ी थी
श्रव्य के साथ दृश्य की जुगलबंदी में उपस्थित था टीवी
जिस हवा को ज़माने से दुलारता था हाथ का पंखा
वह बिजली के पंखे की गति पर फिदा थी
मटके को मुँह चिढ़ा रहा था एक सौ पैंसठ लिटर का फ्रिज
खूंटियाँ कमज़ोर बूढ़ी सास की तरह
आलमारी के पीछे दुबक गईं
चटाई पलंग के नीचे धूल का बिछौना बन बिछ गई
अटाले में चली गई पुरानी कुर्सियाँ इतिहास बन कर
चरमराती खटिया की जगह सज गया चमचमाता सोेफा

यह गोयबल्स का सौ बार बाला गया झूठ नहीं था
न ही शेखचिल्ली का ख़्वाब
खुशहाली का एक मध्यवर्गीय स्वप्न साकार हुआ था
विरासत में मिली बदहाली को
जीवन से बेदख़ल करता हुआ
जिसके आलोक में छुप गए संदेह के सारे दाग़
श्रम की गरिमा थी जिसकी भव्यता में
और जिसकी जड़ों में पसीने की नमी थी

सत्य के नायकत्व का यह एक ऐसा चित्र था
जिसमें साफ़ दिखाई देता था भविष्य की संपन्नता का रास्ता
और जिसे स्थायित्व प्रदान कर वह
जीवन भर तालियों के शोर में डूबा रह सकता था
कि अचानक दृश्य परिवर्तन की अवश्यंभावी
प्रक्रिया में वह अपनी अगली भूमिका में प्रकट हुआ

दाखि़ल हुआ वह प्राकृतिक आपदा की भूमिका में
मनुष्य की नींद में अचानक
श्रम की सत्ता पर नियति की सत्ता का परचम लहराता हुआ
टी वी और गैस और पंखा और आलमारी और टेबल
और सोफा और पलंग और खुशियाँ और सुख
सब कुछ अपनी भयावहता मंे डुबोता हुआ

खलनायक की तरह उसका अप्रत्याशित प्रवेश
सभ्यता के इस नाटक में ठेठ आदिम अंदाज़ में था
और इसे साबित करने के लिए
दोहराये जाने की ज़रूरत भी नहीं थी
कोई प्रश्न भी नहीं था यहाँ
ईश्वर को उसके आगमन के लिए ज़िम्मेदार ठहराये जाने का
अपनी क्रूरता के चरम में यह उसका ईश्वरीय विकास था।

-2002