प्राण-प्राण! हे प्राणनाथ! हे प्राण-प्रियतम! हे प्राणेश!
परम रमण! हे मधुर मधुरता, सुन्दर सुन्दरताके देश॥
बिना तुहारे दर्शनके अब परमाकुल ये पीडित प्राण।
पाना सहज चाहते अब ही दुस्सह विरहानलसे त्राण॥
निकल भागनेको आतुर ये दर्शन-हेतु त्याग तन-धाम।
सुन्दर-सुन्दर कोटि-कोटि शशि-निन्दक मुख-चन्द्रमा ललाम॥
अङङ्ग-अङङ्ग जल रहा तापसे, मनमें भरा विषाद-विमर्श।
शीतल-शान्त-सुखी हो सकता नहीं, बिना पाये संस्पर्श॥
हरी-भरी हिय-लता सुधा-सी सूखी-जली विरहके ताप।
दर्शन-स्पर्श-सुधा बरसाकर जीवन-दान करो निष्पाप॥
पल-पलमें मूर्छित होती, फिर करती जाग करुण-क्रन्दन।
हा गोविन्द, गोपिका-वल्लभ, गोपति, प्रियतम, नँद-नन्दन॥
प्रकटी मिलन-सुधा-धारा उस विरहानलसे अपने-आप।
अकस्मात् पलभरमें ही सब पलटा भाव, मिटा संताप॥
एक अनन्य तीव्र विरहानल जल उठता जब उर अन्तर।
होते प्रकट उसी क्षण प्रियतम स्वयं वहाँ व्याकुल होकर॥
उदय हुए वे मन्मथ-मन्मथ, लिये मधुर मुख-पङङ्कज हास।
मुरली मधुर लिये कर, छाया सभी दिशाओंमें उल्लास॥
मिटी व्यथा, भूली स्मृति सारी, मानो था संतत संयोग।
मानो नित्य-प्राप्त था प्रियका चिद्रसरूप दिव्य सभोग॥
’गया न कहीं कभी था मैं, जा सकता कहीं न तुमको त्याग’।
बोले प्रिय-’मैं पान कर रहा था छिप तव रसमय अनुराग’॥
कहा श्रीमतीने-’हाँ-हाँ, सच, तुम न गये थे मुझको छोड़।
जा सकते न कभी अपने ही बँधे स्नेह-बन्धनको तोड़॥
लुका-छिपी-लीलामें जब तुम हो जाते प्रिय! अन्तर्धान।
याकुलता लख मन-नैनोंको स्वयं बता देते संधान॥
जहाँ-जहाँ जाते फिर मेरे नेत्र ढूँढऩे तुमको श्याम!।
जहाँ-जहाँ जाता मन पाने तुहें, छोडक़र सारे काम॥
वहाँ-वहाँ तुम खड़े दीखते, मोहन! मधुर नचाते नैन।
बरबस हरते चिा सुधा-से सुना-सुनाकर मीठे बैन॥
मधुर-मधुर मुसकाते, हृदय लगाते, कर मोहन भ्रूभंग।
परम सुखद संस्पर्श प्राप्तकर होते धन्य, सुखी सब अंग॥
सदा साथ रहते तुम मेरे, हो चाहे समीप या दूर।
जीवनमें भीतर-बाहर तुम, बस, छाये रहते भरपूर’॥
यों संयोग सुख-सुधा-रस-सागरमें दोनों हुए निमग्र।
उदित प्रेम निर्मल भास्कर हो मोह-निशा कर देता भग्र॥
प्रेमास्पद-सुख-रूप त्यागमय प्रेमराज्यके ये दो तव।
मिलन-वियोग नित्य रसवर्धक, दोनों रखते परम महव॥