हमैं जो हैं चाहते निबाहते हैं प्रेमघन,
उन दिलदारों से ही मेल मिला लेते हैं।
दूर दुत्कार देते अभिमानी पशुओं को,
गुनी सज्जनों की सदा नेह नाव खेते हैं॥
आस ऐसे तैसों की करैं तो कहो कैसे,
महाराज वृजराज के सरोज पद सेते हैं।
मन मानी करते न डरते तनिक नीच,
निन्दकों के मुँह पर खेखार थूक देते हैं॥