Last modified on 12 जून 2011, at 16:19

फिरि फिरि राम सीय तनु हेरत।/ तुलसीदास

(14)

फिरि-फिरि राम सीय तनु हेरत |

तृषित जानि जल लेन लषन गए, भुज उठाइ ऊँचे चढ़ि टेरत ||

अवनि कुरङ्ग, बिहँग द्रुम-डारन रुप निहारत पलक न प्रेरत |

मगन न डरत निरखि कर-कमलनि सुभग सरासन सायक फेरत ||

अवलोकत मग-लोग चहूँ दिसि, मनहु चकोर चन्द्रमहि घेरत |

ते जन भूरिभाग भूतलपर तुलसी राम-पथिक-पद जे रत ||