कहाँ क्या बदला है
युगों की इस
अविराम यात्रा में?
कुछ भी तो नहीं?
वही जीवन-
महाभारत के
रक्त-रंजीत मैदान जैसा,
वही ध्वनियाँ-
चीत्कार भरीं,
वही त्वचाएँ-
द्रौपदी की
बरबस लुभाती
वही बेटा
निरंकुश
दुर्योधन जैसा
अपनी ही जिद पर अड़ा
वही भाई-
दु:शासन जैसा
बुराइयों को शाह देता हुआ!
मैं भी तो आखिर
वही हूँ न-
धृतराष्ट्र-
निपट अंधा
अपने पुत्र मोह में!
कहने को तो आज भी
मेरे बुद्धि ओर विवेक में
विदुर और संजय बसते हैं
मगर मैं रोज उनकी
अनसुनी करता हूँ
मूंठ सिंहासन की
फिर भी
पुरजोर जकड़े रखता हूँ!