Last modified on 17 अक्टूबर 2010, at 23:49

फिर से मुक्त हुआ / केदारनाथ अग्रवाल

फिर से
मुक्त हुआ
जन-मानस;
फिर से
लाल अनार
हृदय में फूला;
फिर से
समय-सिंधु लहराया--
उमँड़ा;
अब जब
ढील मिली जनता को
दुर्दम अंकुश के हटने से।

फिर से
हिमवानी
ओठों पर
बिजली दौड़ी;
फिर से
वाणी और विचार
प्रवाहित हुए
पवन-से
और नदी से।

फिर से
उमँड़ी
मोद निनादित
तरुण तरंगे।

फिर से
दिग्वधुओं ने
अपने घूँघट खोले;
फिर से
धूप धरा पर
उतरी
और
भरत-नाट्यम नाची;
फिर से
पाया प्रकृति-पुरुष ने
लोकतंत्र का
जीवन-दर्शन।

रचनाकाल: ०३-०२-१९७७