फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो
ये न सोचो कि अभी उम्र पड़ी है यारो
अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्अ लिए दर पे खड़ी है यारो
हमने सदियों इन्हीं ज़र्रो से मोहब्बत की है
चाँद-तारों से तो कल आँख लड़ी है यारो
फ़ासला चन्द क़दम का है, मना लें चलकर
सुबह आयी है मगर दूर खड़ी है यारो
किसकी दहलीज़ पे ले जाके सजायें इसको
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो
जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिए बात बड़ी है यारो
उनके बिन जी के दिखा देंगे उन्हें, यूँ ही सही
बात अपनी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो