मैं अधूरे कदमों से चल रही हूँ
उन पहाड़ों पर जो कभी थे ही नहीं
मेरी देह बरस रही है जैसे पत्थरों की आंधी
मेरी देह, सबसे कठोर वस्तु है मुझ में
यह पानी
पराजित और थका हुआ
जैसे समुद्र की गहराई ने
चट्टानों से आईना बनाया
और किसी फ्रेम के लिए सजा दिया
जब हवा हिलाती है दरख़्तों को
मैं इन थपेड़ों में खो देना चाहती हूँ खुद को
बर्फ़ ने जैसे कसम खा रखी है
हर चीज़ को ढँक देने की....