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बहुत कुछ तुम्हारे शहर से है ग़ायब / डी. एम. मिश्र

बहुत कुछ तुम्हारे शहर से है ग़ायब
यहाँ तक कि पानी नज़र से है ग़ायब

तुम्हारी है गंगा, तुम्हीं अब संभालो
मेरी प्यास मेरे अधर से है ग़ायब।

किसी ने ग़रीबों की बस्ती उजाड़ी
जला घर हमारा ख़बर से है ग़ायब

उधर मेरी मंजिल है आवाज़ देती
इधर मेरा सामां सफ़र से है ग़ायब

बड़ी बात तूने ग़ज़ल में कही, पर
नहीं ध्यान रक्खा बहर से है ग़ायब

जिसे देखिये वो बड़ा आदमी है
मगर आदमीयत इधर से है गा़यब