जब इलाके में बंदूक बारूद की ललक के
आपाधापी में लगे थे लोग
एक बुजुर्ग बोधा सिंह तब लगाया था
पीपल की गाँछ
जिसे तुम आज कहते हो बोधा वाला पीपल
वह छतनार घनेरा पीपल
खड़ा है मेरे गाँव के सिवाने पर
दूर देश से आए पंछियों का बन चुका बसेरा
असंख्य कीट पतंगों का आशियाना
जिसके नीचे सुस्ताते आते हैं खैनी मलते मजदूर समीप बाज़ार से लौटे लोग
लुकाछिपी खेलते बच्चे
कहते हैं कि जेठ की तपती धूप में
वह कंधे पर बाल्टी टांगे आता था पीपल में पानी देने जैसे लोग पितरों को देते हैं अंजुरी भर जल
मादा चिड़िया चुगाती है चुज्जों को दाने
जैसे भुखमरी के दिनों में पिता दे देता है
अपने हिस्से का निवाला बच्चों को
सुहागिन आती हैं भोरहरिया में
धागा बाँधने पीपल को अपनी मनौतियों के साथ
ससुराल जाती बेटियाँ भर नजर देख लेती हैं उसे
फिर उन्हें कब मिलेगी जीवन में देखने की साध
परदेश कमाने जा रहे जवान वादा करते हैं उससे कि वे लौटेंगे उसकी छांव में
अपनी जगह अडिग खड़ा वह
हवा में उत्तेजित पत्तों, अपनी टहनियों के साथ
देखता रहा है जमाने को
कि बाढ़ से बौखलाती नदी
कितनी बार फसलों को पहुँचाई है नुकसान
बारंबार आते जल प्रलय से किस कदर
डर कर गाँव छोड़ दिया था रोशन कोइरी
उसे याद है-अकाल वाले वे दिन
कि कैसे मर्माहत होकर आसिन मास में
अपने ही रोपे बिन फले सूख चुके धान के पौधों को घास की तरह छिल रहे थे किसान
याद करता है वह कि भवन के अभाव में श्री भगवान मास्टर उसकी छांव में कैसे चलाते थे पाठशाला
लू से जूझते, ठंडक में किकुड़ते, बारिश में भीगते बच्चों की तड़प याद है उसे
याद है उसे व्याकुलता के साथ कि अपना सर्वस्व लुटा चुकी वृद्धा रोती बिलखती हुई आती थी उसके पास
कंपित मन से याद करता है उस शिशुहंता माँ को
जो अपने अनचाहे नवजात को घड़ा में बंद कर
इसी राह से फेंकने गई थी छिछिलिहाँ घाट
इस नश्वर संसार में अब
सदेह नहीं मिलेगा बुजुर्ग, जिसका नाम था बोधा सिंह पंचतत्व में विलीन होकर भी जीवित है वह
पीपल वृक्ष में ऊसांस लेता हुआ
दिन-ब-दिन स्वार्थी डरपोक असहाय होती जा रही इस दुनिया में
मनुष्यता का प्रतीक बन।