तुम मुड़ जाते हो सूर्यास्त की ओर
और देखने लगते हो साँझ का आलोक ।
तुम चल देते हो सूर्यास्त की ओर
और तूफ़ान मिटाने लगता है तुम्हारे पाँवों के निशान ।
उल्लासहीन तुम मेरी खिड़कियों के पास से
चल दोगे बर्फ़ की ख़ामोशी की तरफ़,
तुम- दिव्य, सुन्दर, सत्य के अनुयायी,
मेरे हृदय के शान्त आलोक ।
मैं पीछा नहीं करूंगी तुम्हारे हृदय का !
अक्षुण्ण है तुम्हारा पथ ।
मैं नहीं ठोकूंगी कोई कील
चुम्बनों से थके हाथ पर ।
चुप रहूंगी मैं नाम पुकारे जाने पर
न ही फैलाऊंगी हाथ ।
मोम के पवित्र मुख-मंडल का
दूर से ही करूंगी अभिवादन ।
झुक जाऊंगी घुटनों के बल
बर्फ़ पर शान्त हिमपात में,
तुम्हारा पवित्र नाम लेते
साँझ का मैं चूमूंगी आलोक ।
चूमूंगी वह जगह जिधर से
तुम गए ताबूत की ख़ामोशी में,
शान्त आओक
पवित्र गरिमा हो तुम ।
तुम हो परमशक्ति
मेरे हृदय की ।
रचनाकाल : 2 मई 1916
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह