यही है वह, प्राए देशों से ऊबकर आया हुआ
नायक- अनुयायीविहीन ।
देखो, चुल्लू से पी रहा है दिव्य-जल वह
सम्राट- राज्यविहीन ।
सब-कुछ है वहाँ उसके लिए : साम्राज्य और सेनाएँ ।
रोटी और माँ ।
भव्य है तुम्हारा वैभव- मालिक बनो उसके तुम,
ओ मित्र- मित्रविहीन ।
रचनाकाल : 15 अगस्त 1921
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह