भीतर पैठी / केदारनाथ अग्रवाल

भीतर पैठी
चित् में चिन्ता,
हिला रही है चीड़ वनों की रीढ़।

हाँक रहा-
हुंकार मारता-
महाकाल भी
दिल-दिमाग में
गजयूथों की भीड़।

मैं
बटोरता
बूढ़े हाथों
चावल के कुछ दाने
झरे पेड़ जो
मुझे बुलाते
यदा-कदा अनजाने।

रचनाकाल: ०६-०७-१९७९

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