मंद-मंद मुसकावत आवत।
देखि दूर ही तें भइ बिहवल राधा-मन आनँद न समावत॥
नव नीरद-घनस्याम-कांति कल, पीत बसन बर तन पर सोभित।
मालति-कमल-माल उर राजत, भँवर-पाँति मँडरात सुलोभित॥
सकल अंग चंदन अनुलेपित, रत्नाभरन-बिभूषित सुचि तन।
सिखा सुसोभित मोर-पिच्छ, मनि-मुकुट सुमंडित, केस कृष्न-घन॥
मुख प्रसन्न मुनि-मानस-हर मृदुहास-छटा चहुँ ओर बिखेरत।
चिा-बिा हर लेत निमिष महँ जा तन करि कटाच्छ दृग ड्डेरत॥
मुरली, क्रीड़ा-कमल प्रफ्फुल्लित लिये एक कर, दूजे दरपन।
देखि राधिका, करन लगी निज पुनः-पुनः अर्पित कौं अरपन॥
(दोहा)
उमग्यो परमानंद निधि, राधा भई बिभोर।
भूमि परत, दै कर-कमल, लई उठाय किसोर॥
चरन पकर बैठी निकट, निकसत नहिं मुख-बैन।
कछुक काल महँ धीर धरि, बोली-’सुनु सुख-ऐन’ !॥