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मन-व्यभिचारी / रस प्रबोध / रसलीन

मन-व्यभिचारी

वर्णन

बरने तन चर भाइ अब बरनी मनचर भाइ।
जे पाइन के होत हैं नित सहचारी आइ॥824॥
रहत सदा थिर भाव मैं प्रगट होत यहि रूप।
जैसे आनि समुद्र ते निकसत लहर अनूप॥825॥
फिरत रहत सब रसन मैं इनको यहै सुभाव।
जा रस में नीको जुहै तैसो तहाँ बनाव॥826॥
पहिले दै निरवेद को थाई माँहि गनाइ।
पुनि अब राख्यौ आनि यह बिबिचारिन मैं लाइ॥827॥
तत्त्व ग्यान बिरहादि जे जहँ जग को अपमान।
और निदरिबो आपनो सो निरवेद प्रमान॥828॥
निज रस पूरन होन लौं थाई जानि उदोत।
गयै रौद्र रस मैं वहै बिबिचारी पुनि होत॥829॥
त्यौंहीं चिंता आदि जे धरे दसा दस माँहि।
गये और ठौरन वहै बिबिचारी ह्वै जाँहि॥830॥

निर्वेद-लक्षण

ध्यान सोच आधीनता आँसू स्वाँस उसास।
उठि चलिबो सर्वस्व तजि ये अनुभाव प्रकास॥831॥

निर्वेद-उदाहरण

यह जिय आवत है अली तजि सब जगते आस।
बन माली के लखन कौ बन मैं लीजै बास॥832॥
कत रोकत मोहि आइकै कछु बिवेक है तोहि।
स्याम रूप आगे कहौ कौन देखि हैं मोहि॥833॥

ग्लानि-लक्षण

रति गतादि ते निबलता नहि सँभार सो ग्लानि।
छीन बचन कंपादि ते जानि लेत हौं जाँनि॥834॥

उदाहरण

नये रसिक ये गनति हैं रति ही माहि बिलास।
कहूँ सुन्यौ काहू लई मलिमलि पुहुप सुबास॥835॥
छीजत हूँ मीजत कुचन रीझत मूठि बनाइ।
आली बानर हाथ मैं परîौ नारियर जाइ॥836॥

दीनता-लक्षण

दुख दारिद बिरहादि ते होत दीनता आनि।
मन सो बच हा हा करत तन मलीनता जानि॥837॥
हरि भोजन जब ते दये तेरे हित बिसराइ।
दीन भये दिन भरत हैं तब ते हाहा खाइ॥838॥
तुव डर भजि बन बन भजत अविनारिन बिलखाइ।
जब पग पति लागत हुते अब ये कंटक आइ॥839॥

शंका-लक्षण

निजु ते कछु औगुन भये कै चवाउ कछु देखि।
उपजै संका जानियै इत उत लखन बिसेखि॥840॥

उदाहरण

जब ते काहू है लख्यौ तुम्है वाहि मुसकात।
तब ते जानत जगत मैं होत मेरियै बात॥841॥

त्रास-लक्षण

त्रास भाव प्रगटै सदा घोर दरस सुधि पाइ।
स्तंम कंप धकधकहु ते तन मैं होत जनाइ॥842॥

उदाहरण

हँसति हँसति तिय कोप कै पिय सों चली रिसाइ।
निरखि दामिनी तरप कौ डरपि गई लपटाइ॥843॥
देस देस के पुरुष सब चलत रावरी बात।
यौं काँपत ज्यों बात ते रूख रूख के पात॥844॥

आवेग-लक्षण

अरि दरसन उतपात लहि मित्र सत्रु जँह होइ।
सो आवेग लच्छन तपन विभ्रम भ्रम ते जोइ॥845॥

उदाहरण

परी हुती पिय पास नहिं गई सासु वँहु आइ।
सटपटाइ सकुचाइ तिय भाजी भवन दुराइ॥846॥
सुनि तुव दल अरि तियन की ऐसी गति दरसात।
भजति गिरति गिरि गिरि भजति भजि भजि गिरि गिरि जात॥847॥

गर्व-लक्षण

जौं काहू अधिकार तें अहंकार मन होइ।
पर निदरे तै लखि परे गरब रहत है सोइ॥848॥

उदाहरण

पीतम पठई बेंदुली सो लिलार झमकाइ।
सौतिन मैं बैठी तिया कछु ऐंठी सी जाइ॥849॥

आँसू-लक्षण

परगुन दरब बिलोकि कै होत सु असुँवा आनि।
दोष कथन उप बचन तें प्रगट लीजिए जानि॥850॥

उदाहरण

कमला हरि के उर बसे लह्यौ उरबसी नाउ।
यहि गुन राधे उर बसी बैठी बाँधे पाँउ॥851॥

अमर्ष-लक्षण

उपमानादिक ते कछू कोप अवै स अमर्ष।
कहियत बचन कठोर तहँ ताप बढ़ै घटि हर्ष॥852॥
जो दासी के बस भए जग कहाइ बृजराज।
तिनकी ये बतियाँ करत तुम्है न आवत लाज॥853॥
कहा कहौं मों प्रभु नहीं दीन्हौं सासन मोंहि।
ना तर रे राकस कछू हौं दिखावती तोंहि॥854॥

उग्रता-लक्षण

अवराधादिक ते हियो जो निरदयता सोइ।
सोइ उग्रता जानिये तरजन ताड़न होइ॥855॥

उदाहरण

सीस फूल जेहि लाल को सौतिन करे बनाइ।
तेहि राखौंगी आजु हौं पायल माहिं लगाइ॥856॥

उत्सुकता-लक्षण

सहि न सकै जो कालगति उतसुकता तिहि जान।
उपजै औधि विभाव सो बिकलाई ते मान॥857॥

उदाहरण

पतिया पठवन कहि गए सो नहि पठई लाल।
ताही की अवसेरि मैं बिकल भई है बाल॥858॥

दिन अवसेरत ही गयौ नहिं आये वृजनाथ।
सजनी अब जिय जात है या रजनी के साथ॥859॥

स्मृति-लक्षण

लखै बसन मनि गन चितै फिर वाकी सुधि होइ।
कै सुधि पूरब अर्थ कै सुमृति कहिए सोइ॥860॥
हरष सहित अविलोकिबो भौंहन को संचार।
सिर कंपन अंगुरीन ते तरजन अरु भौचार॥861॥
निकसत ही पटनील ते तेरे तन की जोति।
चपला अरु घनस्याम की हिये आनि सुधि होति॥862॥
जमुना तट मोसों कही तूँ जु बात मुसुकात।
सदा रहत चित मैं चढ़ी भूलिहु बिसरि न जात॥863॥

चिन्ता-लक्षण

अनपाये प्रिय बचन को ध्यान माँहि चितु जाइ।
सो चिंता जँहि ताप अरु आँसू स्वाँस लखाइ॥864॥

उदाहरण

दृगन मूँदि भौहन जुरै कर पै राखि कपोल।
कौन सोचु मैं बैठि तिय इहि बिधि भई अडोल॥865॥

तर्क-लक्षण

कहिये तर्क बिचारि कै संसै तासु बिभाव।
सिर चालन भृकुटी चपल ताको है अनुभाव॥866॥
संसै भई बिचारि मैं इति त्रिय अध्योसाइ।
चौथे विप्रितपत्य ए चारि तरक समुदाइ॥867॥

संशयात्मक तर्क-उदाहरण

मन मोहन छबि लखत ही भूलि गय सब ऐंठ।
अब जब गति लख सो कहौ हौं भूली की पैंठ॥868॥

विचारात्मक तर्क-उदाहरण

बोलत हैं इत काग अरु फरकत नैन बनाइ।
यातें यह जान्यौ परत पीतम मिलिहैं आइ॥869॥


अध्यवसायात्मक विप्रतिपत्यात्मक

तर्क-लक्षण

करि बिचार मेटे सकल सोई अध्यवसाइ।
परै न जहँ परतीति सो बिप्रतिपतय गुनाइ॥870॥

अध्यवसायात्मक तर्क
उदाहरण

रच्यौ काम यह मुकर कै कमल भयौ अबिदात।
किधौ चन्द्र भुव अवतरे कछु जान्यौ नहि जात॥871॥

विप्रति पत्यात्मक
उदाहरण

अनल ज्वाल नहिं कहि सकत करत सीत यह अंग।
कला सरद ससि कहौ तो दिन ते कौन प्रसंग॥872॥

मति-लक्षण

ग्यान जथारथ को जहाँ तहँ कहिये मति भाव।
आगम सोच विभाव अरु सिक्छादिक अनुभाव॥873॥

उदाहरण

कोऊ बरने पुरुष जसु कोऊ बरनै बाम।
सुकवि सकल तजि कै सदा बरनत हैं हरिनाम॥874॥
धर्म नीति प्रभु भक्ति जुत साधु प्रीति जँह होइ।
चित हित पर उपकार मैं ग्यान जानिये सोइ॥875॥

धृति-लक्षण

धृत कहिये संतोष को सत्या तासु बिभाव।
दुख को सुख करि मानई धीर जादि अनुभाव॥876॥

उदाहरण

हारîौ मदन चलाइ सर ससि कर सेल लगाइ।
यह पिक कहि रोतो कहूँ कहा डरावत आइ॥877॥
कौन नवावत जगत को फिरै आपने माथ।
बाँध दई है जीविका दई जीव के हाथ॥878॥

हर्ष-लक्षण

हरष भाव पिय बसत लखि मन प्रसाद जो होइ।
मन प्रसन्न पुलकादि लहि जानत है सब कोइ॥879॥

उदाहरण

तिय घट भरि उमगे हरष यौं भेटत नंदलाल।
ज्यौं बरसत ही स्याम घन जल झिहरत भरि ताल॥880॥
हात एक ही भवन मैं आनँद बन में नन्द।
राम जनम ते चौदहों भुवन भयों आनन्द॥881॥

ब्रीड़ा-लक्षण

जो काहू की आनि ते होत ढिठाई हानि।
मखनावन आदिक जहाँ ब्रीड़ा लीजै जानि॥882॥

उदाहरण

पिय कछु बाचन मिसि दिया तिय तें लयो मँगाइ।
मुख छवि लखि इति ये छके उत वह मुरी लजाइ॥883॥
सखिन संग खेलत हुती ठाढ़ी सहज सुभाइ।
पिय आवत औचकि चितै बैठि गई सकुचाइ॥884॥

अवहित्था-लक्षण

संगोपन बेवहार को सो अवहित्था भाव।
है विभाव हिय कुटलई वहिलावन अनुभाव॥885॥

उदाहरण

सौति सिंगार निहार तिय घूँघट पट मुँख लाइ।
खाँसी को मिस ठानि कै हाँसी रही दुराइ॥886॥

चपलता-लक्षण

राग द्वेषआदिकन के होत चपलता आइ।
किए सीघ्रता आदि तें तन मैं होत लखाइ॥887॥

उदाहरण

इत ते उत उत ते इतै चमक जात बे हाल।
लखिबे को घनस्याम को भई दामिनी बाल॥888॥

श्रम-लच्छण

रति गति कै कछु बल कियौ खेद होत जो आइ।
सोई श्रम स्वेदादि ते मन मैं होत लखाइ॥889॥

उदाहरण

निज काँधे तिय बाँह धरि तिय कटि तिय धरि बाँह।
मंद मंद सखि सेज तें ल्यावत मंदिर माँह॥890॥
तन तोरनि नासा चढ़ै सीखी भरि अँगिरानि।
अंग दबावत बाल को दाबि लेत मन आनि॥891॥

निद्रा-लक्षण

सो निद्रा जो इन्द्रियन तजि मन तुचा समाइ।
स्रम आदिक ते होत लखि सप्नादिक ते जाइ॥892॥

उदाहरण

खिनिक होत तन मैं पुलक खिनि अधरनि मुसकानि।
याते स्रम तिय को परति पिय संग सोवन जानि॥893॥
सुपने में मिलि लाल सों रही बाल लपिटाय।
बाँह चलावति भुज गहति बिहँसनि देति जनाय॥894॥

स्वप्न-लक्षण

तूचह मन तजि जमपुरी बसै सो स्वप्न बखानि।
होत नींद ते परत है स्वपनादिक ते जानि॥895॥
नैन मूँदि बेसुधि परी सोवति बाल बनाइ।
साँस छरी के बल रही बेसरि मुकुति नचाइ॥896॥
वैपथ जागि बिजानिये नीद छुटे ते होइ।
दृग मूँदनि अँगरान अरु जिम्यादिक ते जोइ॥897॥

उदाहरण

दृगन मीजि अलसाय पुनि अंग मोरि अँगिराइ।
बाम जगत तजि स्याम कौ दीन्हौं काम जगाइ॥898॥
पिय आहट लखि बाल दृग यों जगि उधरे प्रात।
ज्यौं रवि दुति सनमुख लखे बध्यौ कमल खुलि जात॥899॥

आलस-लक्षण

व्याधि खेद गरबादि तें आलस उपजै आनि।
उठिबे को सामरथता तेहि मन लीजै जानि॥900॥

उदाहरण

तिय लावत ही लेत पिय प्यालौ लियौ उठाइ।
गरभ भार ते उठति नहिं माँगति हा हा खाइ॥901॥
कौन छक्यौ छबि सो मरो यह ऐड़ानि विसेखि।
अरु मग ढीलो डग भरन अरिसीली को देखि॥902॥


मद-लक्षण

मदिरा बिद्या दर्बि ते जोबन आये गात।
उपजत है मदहाव तहँ कढ़त अलसगत बात॥903॥

उदाहरण

छिनक रहति कर लै चषक छिन मुख रहति लगाइ।
आप करति मद पान पै छकवति पी को जाइ॥904॥
जब ते कामिनि कान्ह कौ तके मद भरे नैन।
तब ते वै बिनु मद छके छके रहत रस ऐन॥905॥

मोह-लक्षण

मद भय आदि विभाव तें चित जो बेचित होइ।
वहै मोह अग्यानता ते लहियत है सोइ॥906॥

उदाहरण

लकुटि गिरी छुटि हाथ तें मुकुट परîौ झुकि पाइ।
मोहन की यह गति करी राधे बदन दिखाइ॥907॥

उन्माद-लक्षण

दर्बि हानि बिरहादि यै है उन्माद विभाव।
बिनु बिचार आचार अरु बौराई अनुभाव॥908॥

उदाहरण

खिनि रोवति खिनि बकि उठति खिनि गहि तोरति माल।
जमुना के तट जाति यह भयौ बाल को हाल॥906॥

अपस्मार-लक्षण

जच्छ रच्छ ग्रहभूत अरु भय दुख आदि विभाव।
अनुभव वैपथ फेन मुख अपसमार को भाव॥910॥

उदाहरण

कहा बजायो बेनु यह नारिन को जिय लेन।
फर फराति वह छिति परी मुख मैं आयो फेन॥911॥
कत दिखाई कामिनि दई दामनि को यह बाँह।
थर थराति सीतन फिरै फरफराति घन माँह॥912॥

जड़ता-लक्षण

ग्यान घटै अरु गति थकै निरनिमेष रहि जाइ।
प्रिय अप्रिय देखै सुनै सोई जड़ता भाइ॥913॥
पिय लखि यौं लागत अचल तिय दृग तारे स्याम।
मनु थिर ह्वै बैठे भँवर कमलन को करि धाम॥914॥
बाट चलति ननदी कह्यौ कहाँ गिरी तुव माल।
हिये ओर तकि चकित ह्वै थकित ह्वै रही बाल॥915॥

विषाद-लक्षण

चाह्यौ ह्वौ इन अनचहौ भये देखि दुख होइ।
सो विषाद अनुभाव कहि तीनि भाँति जिय जोइ॥916॥
उत्तिम ढिग ह्वै कै हिये सोचे कछुक उपाय।
मद्धिम जो अनमन किये ढूढ़ै कोउ सहाय॥917॥
अधम बदन अति सूखि कै पीरो होइ निदान।
भरि भरि लेत उसास अरु करै भाग अपमान॥918॥

उदाहरण

चली स्याम पै बाम तहँ मिली ननद पथ आइ।
यहि सोचति किहि छन्द छलि हरि सों मिलिये जाइ॥919॥
काम कलेस भयादि ते ब्याधि जुरादिक होइ।
कर चरनन को फेरिबो धीर दहादिक होइ॥920॥

उदाहरण

निरखि निरखि तिय की बिथा थकित भये सब लोग।
समुझि न परति बियोग है कै कछु डारयौ जोग॥921॥
अरी बाल छबि स्याम की यौं परयंक लखाइ।
मानौ कागद पै लिखी मसि की लीक बनाइ॥922॥

मरण-लक्षण

कछुक ब्याधि वा घात तें मरन होत है आनि।
दृग मूँदन स्वाँसा चलनि हिलकत ते रहि जानि॥923॥

उदाहरण

तरफि तरफि रन खेत मैं तुव बौरिन के लोग।
कोउ मरै कोऊ मरत कोऊ मरिबे जोग॥924॥