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महक / प्रेमशंकर रघुवंशी

दिनों बाद माँ मिली तो
खिलते रहे देर तक रोम-रोम
स्वप्न में स्वर्गीय पिता दिखे तो
आकाश-सा फैल गया माथे पर आशीर्वाद
भाइयों से भेंट हुई तो
क्षितिजों तक लंबी हो गईं भुजाएँ
अर्से बाद बहिनें मिली तो
राखी का त्यौहार हो गया मन
नाती-पोतों को पाते ही
कनियाँ-कनियाँ भर गया आँगन
देखो तो!
धूप दीप जैसा
कितना-कितना महक रहा है घर!!