Last modified on 2 मार्च 2014, at 16:54

महामहिम मुनि-मनहर / हनुमानप्रसाद पोद्दार

महामहिम मुनि-मनहर, मजुल, मधुर परम मंगलमय श्याम।
पल-पल वर्द्धमान शुचि अनुपम दिव्य रूप-लावण्य ललाम॥
कुटिल भ्रुकुटि करती आकर्षित बरबस मनको अपनी ओर।
उमड़ उठा रस-सागर परमानन्द, कहीं भी ओर-न-छोर॥
रूप सिन्धुमें मन निमग्र था, पर न तनिक-सा जगा विकार।
जगना दूर रहा, स्वाभाविक हो गया शुचि अविकार॥
तन्मयता हो गयी, तनिक भी रहा न तनका बाह्य जान।
प्रलय नहीं, पर मिटी जगत्‌की सारी रचना, सारा भाव॥
इतनेमें हो गया अचानक आँखोंसे ओझल वह रूप।
सहसा व्यथा-वियोग-वह्नि जल उठी, बढ़ गयी विपुल अनूप॥
पर आश्चर्य, विरह-दावानलमें प्रियतम-स्मृति रही अभङङ्ग।
ले अगणित शीतल सुधांशुकी सुधामयी शीतलता संग॥
घोर तापमें थी विचित्र अनुपम शीतलताकी अनुभूति।
सहज विरोधी धर्म प्रकट थे, युगपत थी अद्‌भुत आकूति॥
सखी! बताऊँ मैं कैसे प्रियतमके प्रतिदिनके वे छन्द।
प्रियतम हैं स्वच्छन्द सदा, ये लीला‌एँ भी हैं स्वच्छन्द॥