कान जब ललक उठे हों सुनने को
पंडित रविशंकर का सितार वादन
और सुननी पड़ती है किसी बूढ़े के
जर्जर फेफड़ों की बेसुरी धुन स्टेथेस्कोप से
आतुर हो उतरने को
कोई छन्द कागज पर
और लिखना पड़ता है परचा
कड़वी दवाइयों का कड़ी हिदायत के साथ
कूंज रहा हो कबूतर उन्मत्त
ढाई आखर का प्राणों को बेसुध करता
और जाना पड़ता है अकस्मात्
किसी पड़ौसी की शवयात्रा में
उतारकर कपड़े नये फैशन के
जो पहने थे
घूमने जाने के लिए अपनी प्रियतमा के साथ।
कितनी विचित्र होती हैं परिस्थितियां
और इससे भी बढ़कर मनःस्थितियां जीवन की
कि, ठहर जाते है रविशंकर सितार पर
और आत्मीय लगती है फेफड़ों की
बेसुरी धुन, करती तन्मय
ठहर जाती है कविता उतरते-उतरते
और सही-सही उतरती है परचे पर दवाइयां
अचूक, किसी छंद-सी
और आंसुओं से भीग जाता कूंजता कपोत
देखकर शवयात्रा
सच कितने प्यारे हैं ये मुखौटे
कितने आत्मीय! कितने पवित्र!