किसने आँगन में
यादों के
मृग छौने बाँधे?
जब जब नभ में
घन कजरारे
उमड़-घुमड़ छाए
किसी अनागत रूपदीप्ति की
बिजुरी दमक गयी
अन्तर डोला
घाटी पुलकी
हुलसित नदी हुई
मुंदी पलक से
किसी गीत की
गागर छलक गयी
शब्द धर दिये हैं बस मैंने
अर्थ नहीं साधे!
बहुत विवशता है
कुछ गा लूँ
चुप-चुप घुट जाऊँ
मन हलका कर लूँ
सुख-दुख की
किससे बात कहूँ
कुटिल खिड़कियाँ
टेड़े आँगन
चुगली दीवारें
छत का नहीं भरोसा
किसकी छाया बैठ रहूँ
नहीं मिला है हाथ किसी का
नहीं मिले काँधे।
अपने ही पंखो उड़ना है
बन्धन तोड़ दिये
किसी अनाहत स्वप्नलोक को
रथ अब मोड़ लिये
हम जाएँगे
उठी धूल को
तुम उछालकर कहना
चला गया
जिसने जीवन के
छक कर जाम पिये
वरण किया सौन्दर्य
प्रीति के
पथ ही आराधे