मैं फूल नहीं हो सका। बग़ीचों से
घिरे रहने के बावजूद। उनकी
हक़ीक़त जान लेने के बाद
यह
मुमकिन भी नहीं था। यों
अनगिन फूल हैं वहाँ। लेकिन
मुस्कुराता हुआ कोई नहीं। खीसें
निपोरते हुए और
सूरज के साथ बन गए
अपने सहज रिश्तों को
भुनाते हुए।
आसान है
देहलीज़ से आंगन तक दौड़ लगाते
घरेलू ठहाकों को देखना। छूना। लेकिन
मैं किसी कतार में हूँ। राशन की
या बस की या ऎसी ही कोई और।
सदियों से। पसीने की
नदी में बाढ़ आई हुई है। और
कविताएँ
असहाय बही जा रही हैं। मैं
किनारे पर खड़ा
सिर्फ़ यह सोच रहा हूँ कि आज तो
चीनी लेकर ही जाऊंगा। यह
कोई संकल्प नहीं
एक चीख़ है। और
यह चीख़ एक साँचा है
जिसमें
मेरा वर्तमान ढल रहा है।
रचनाकाल : 1 अगस्त 1974