सागर तुम से और तुम सागर से
अपना-अपना भला चाहते हो
और जानते हो कलाएँ भी
अपने से सिलसिलाबद्ध जोड़ लेने की
एक दोसारे से, स्वयं को
जिन्हें तुम रेत समझते हो
वे रेत नहीं
बुरादों में परिणत सिसकियाँ हैं,
जिन पर बैठ समन्दर की ओर
मुँह किये
टाँग देते हो क्षितिज में
तुम अपनी उदासी.
अपनी आँखों के रास्ते
बहान देना चाहते हो
हृदय की समस्त घनीभूत संवेदना!
छिड़क देना चाहते हो
अपनी अभिलाषाओं की राख़!
पसार देते हो अपनी एकरसता के
रिसते हुए कुहासों को
उसकी लहरों पर.
…. फिर लौटने लगते हैं
तुम्हारे पाँव
सिसकियों को कुचलते
वापसी की सुखद अनुभूति लिये.
तुम रह गये उन्नीस!
और तुम्हें पता भी नहीं चल पाया
कि सागर यहाँ भी तुमसे बीस निकल गया.
वह तो स्वयं ऐसे “किसी” की प्रतीक्षा में
था ही
जिसके अंदर
अपनी खलबलाती असीमित वेदनाओं को
उँड़ेल सके
लहरे, जिन्हें तुम दिख भर रहे थे
वे लहरे नहीं
सागर की सारी वेदनाओं को
ढो-ढोकर लाती
उसकी व्यथा-पुत्रियाँ थी
जिनकी चंचला पर मुग्ध
तुम उन्हें देखते रहे..... देखते रहे
भरते रहे सागर की पठाई सौगात से
अपना अन्तर्मन
सागर का क्या, वह तो हल्का हो गया
उसके किनार
सिसकियाँ के बुरादे की थोड़ी
मात्रा और बढ़ गयी
जिन्हें तुम रेट समझ
पाँवों तले रौंदते लौट आये हो-
मेरी कविताओं की ओर....