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मेल-बेमेल / मुकेश निर्विकार

कितना दुष्कर हैं
दो संस्कृतियों का निर्वाह करते हुए जीना,
सवारी दो नावों की एक साथ
या रखी हों एक म्यान में दो तलवार जैसे
या सूर्य-चन्द्र करते हों अधिक अंधेरा
अमावस की रात को ।
निखालिस एक कसाई से
जो करता है रात-दिन जीव-हत्या और ‘माँस-भक्षण’
बुरी होती है हालत उस नेकदिल इंसान की
जिसके अंतस में संवेदना कायम हैं
जो संस्कारों से परदू:खकातर हैं।
जिसके मानस में पुण्य-पाप का बोध है।
मगर इन सबके बावजूद भी
जिसकी जीवनवृति कसाईगीरी है।
निरन्तर सालता है अपराधबोध उसे
दहकता रहता है संतापों की तपती आग में।

हे प्रभों! आजीविका के अनुरूप ही
मनोदशा दिया करो
और मनोदशा के अनुरूप ही
आजीविका!