मैं ख़ुश हूँ, नाराज़ नहीं हूँ !
मैंने माना — मानव का गुण हंसना है, रोना भी,
लेकिन अपने दुख में उसने अलसित अँगड़ाई ली !
मैंने जो कुछ जाना-माना,
दुनिया ने सब जाना,
जिसे न कोई जाने-समझे
मैं तो ऐसा राज़ नहीं हूँ !
मैं ख़ुश हूँ, नाराज़ नहीं हूँ !!
मैंने माना — घृणा-प्यार का एक रूप है मानव,
कभी-कभी सब सुन लेते हैं उसके अन्तर का रव;
सोच रहा हूँ मैं — अपना है
रोग स्वयं ही रोगी,
बोल रहा हूँ, डोल रहा हूँ,
हंसता हूँ, नासाज़ नहीं हूँ !
मैं ख़ुश हूँ, नाराज़ नहीं हूँ !!
एक पथिक, जिसका दस डग घर, कुछ गाता आता है,
चन्दा बनकर कभी चमकता, तारे बन जाता है,
और किसी के चिर-यौवन से
जिसका जीवन डगमग,
जिसका स्वर-स्वर क्षणभर में ही
धरा-गगन में गूँजा,
उसकी एक गूँज मैं भी हूँ,
किन्तु ... किन्तु आवाज़ नहीं हूँ !
मैं ख़ुश हूँ, नाराज़ नहीं हूँ !!