विरह का यह उत्कट जिप्सी प्रेमी
मिलने पर छिटक जाता है दूर
हाथों पर गिर आता है माथा
अंधकार निहारते सोचती हूँ मैं :
हमारी चिट्ठियों को खोदता
कोई भी नहीं पहुँच सका इस गहराई में,
किस हद तक हम रहे हैं आस्थाभंजक
यानी किस हद तक अपने-अपने प्रति आस्थावान !
रचनाकाल : अक्तूबर 1915
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह