कवि का अपनी कविताओं के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहना पाठकों या श्रोताओं के प्रति एक प्रकार से अविश्वास प्रकट करना है, ऐसा न भी हो तो भी वह कविताओं के आस्वादन में साधक कम, बाधक अधिक होता है। इधर तो इसकी परिपाटी ही चल पड़ी है। मैं ऐसा नहीं करूँगा।
इस सँग्रह के सम्बन्ध में अवश्य दो-एक बातें कहनी हैं —
सँग्रह दो खण्डों में विभाजित किया गया है — ’नाव के पाँव’ और ’टूटती लहरें’। प्रथम खण्ड में मेरी सन् 1951 के बाद की प्रायः सभी कविताएँ सँग्रहीत हैं और द्वितीय खण्ड में इसके पूर्व की कुछ कविताएँ। नई और पुरानी रचनाओं को एकसाथ मिलाकर रखना मुझे उचित नहीं लगा और पिछली कृतियाँ मैं सर्वथा छोड़ भी नहीं सका। कुछ पूर्वाभास देने की दृष्टि से और कुछ शायद मोह के कारण।
मन जितना अधिक शब्द और अर्थ में रमता है उससे अधिक उसे रूप आकार भाते हैं। कम से कम मेरे लिए तो यही सत्य रहा है। नाव के पाँवों की कल्पना भी इसी रूपाकार प्रियता का ही एक परिणाम है। कविताएँ लिखने से अधिक चित्र बनाना रुचता है। इसी स्वभाव ने मुझे इस संग्रह की हर कविता को रूपाकारों में अलंकृत करने के लिए प्रेरित किया। अलंकरण में अर्थ और आकारों की पारस्परिक संगति रखने का यथासम्भव प्रयास किया गया है।
इस सँग्रह को इस रूप में प्रस्तुत करने में मुझे अपने निकट के अनेक मित्रों रघुवंश जी, भारती, लक्ष्मीकान्त वर्मा, सर्वेश्वर, रामस्वरूप चतुर्वेदी और सबसे अधिक साही से सहयोग मिला है जिसके लिए मैं उन सब का हृदय से आभारी हूँ।
जगदीश गुप्त
वैशाखी पूर्णिमा
सम्वत् 2012
मोतीमहल
दारागंज
प्रयाग