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यादों के टीले / देवेन्द्र कुमार

ऐसे तो हैं यार क्षणों के
रह जाएँगे क्या
हम, तुम, सब, यूँ हीं
कुछ मुहावरे हो के।

हाथों में अँटती न उँगलियाँ
अब तो जैसे भूल रही हैं
धूप दिनों की शब्दावलियाँ
कभी पहनना, कभी छोड़ना
क्या मतलब —
होते चहरों के।

यही समझ लो याद नहीं है
कुछ दाँतों का, कुछ जुबान का
अपना कोई स्वाद नहीं है
जीने को जंगल की शर्तें
खाने को —
पेड़ों के धोके।

किसको छोड़ें, किसको गाएँ
सोच पड़े यादों के टीले
शहर बन गईं सब इच्छाएँ
अख़बारों की देखा-देखी
और बुलावे
तारघरों के।