मरम को जानत मनवां मन की॥टेक॥
चन्द अमन्द चरन दिलखलावत, चयलित
लोचन चारू चलावत, रहतन बुधि बावरी बनावत
सुध न धाम का मनकी।
चित चोरे पर नहीं निहारै।
जानि जदपि तौ हूँ दृढ़ धारै,
मन पीपी तेहि नाहिं विसारै,
जपत जाप ना मनकी।
वह इत भूले हू नहिं आवै
औरन संग रहि नहिं छवि भावै
कोऊ जाय न हाय छुड़ावै
संगति इनकें मनकी।
श्री बदरी नारायन गायो,
यह अविवेक रूप संग छायो,
विधि छल-छल की चाल चलाए
वामन की बामन की।