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रात ढलती है / दिनेश कुमार शुक्ल

पक कर जब ढलने लगता है दुख
या तमतमा कर जब उतरने लगता है ज्वर
असमंजस भरी नमी पसीने की
तब आर्द्र करने लगती है
दिन भर की तपी हुई देह को
शिलाओं को....

बजता है अर्धरात्रि का प्रहर
और रोती है पुक्का फाड़कर
राज्यलक्ष्मी श्मसान में-
तब थपकाना शुरू करती हैं
अदृश्य समुद्र की निराकार लहरें
चिड़ियों के भेस धर बैठी आत्माओं को
ऐसे में अचानक ही
रात को भी आ जाती है
पहली गहरी झपकी ....

सन्नाटे-सा
टूटता है एक तारा दक्षिण में
काँपता है सारा आकाश
काँपते हैं सारे नक्षत्र और
गूँजता है तारक-संगीत

दिशा-दिगन्त तक फैले
अँधेरे के उथले तालाब की
सतह पर रह-रह कर डैने मारती
उड़ती चली आती हैं यादें,
यादों के झपट्टों से
खुद को बचाता
आ रहा है कोई
थहा-थहा कर मँझाता करता पार
अँधेरे के उथले अपार सागर को
ऐसे में उजास की आभा
भाप-सी उठती है
अँधेरे की स्थिर काली सतह से,
ऐसे में तुम्हारी अनुपस्थिति
उड़ती चली आती है
सिर्फ चाँदनी की हवा से भरी
सफेद झीनी चादर-सी

ऐसे में दरक उठती हैं चट्टानें-
जीवाश्मों को फोड़ कर
निकल पड़ते हैं
जाने कब के प्रलुप्त जीव-जन्तु,
समुद्रों की पेंदी फोड़
उगते चले आते हैं
अतीत के महाकान्तार
और
आकाश से टपक-टपक
वापस गिरने लगते हैं वह शब्द
जो बचपन में हमने उछाले थे
गेंद की तरह
और जिन्हें लपक लिया था अंतरिक्ष ने

ऐसे में होती है जगहर,
सिर्फ आवाजों की संभावना से
थरथराती काँपती है वध्यस्थली
अजब-सा भूकम्प कि
अपना काला मुँह छुपाती
जमींदोज हो जाती हैं आतंक की अट्टालिकाएँ