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राधे! क्या संदेश सुनाएँ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

राधे ! क्या संदेश सुनाऊँ, क्या कहलाऊँ मनकी बात।
छिपा नहीं तुमसे कुछ भी जब घुला-मिला रहता दिन-रात॥
नित्य अहैतुक हम दोनोंका, प्रिये ! प्रेम यह अति पावन।
नित्य-निरन्तर बढ़ता रहता, सहज मधुरतम मन-भावन॥
नहीं घटा सकते इसको हैं, कैसे भी शत-शत अपराध।
अनुनय-विनय-विषय-सुख मिथ्या नहीं बढ़ा सकते कर साध॥
निष्कारण, निरुपाधिक, निर्मल, नीरव, नित्य इयााहीन।
अपरिमेय, अनवद्य, अनिर्वचनीय, अनन्त, अकाम, अदीन॥
अति शुचि गुरुतर प्रेम दिव्य यह दुर्लभ सुधा-विनिन्दक स्वाद।
वाणीमें ला कैसे कर दूँ, इसे अशुचि, लघु मैं अस्वाद॥
मथुरामें रहकर रहता मैं प्रिये तुहारे संतत पास।
इसी प्रेमसे बँधा, न पाता मैं अन्यत्र कदापि सुपास॥
पर मैं करता नित्य प्रेममें अपने अति अभावका बोध।
राधे ! बढ़ते ऋण अपारका कभी न कर पाऊँगा शोध॥