रामप्रेम की प्रधानता-1
( छंद 117 से 118 तक)
(117)
को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहि कीन्हों?
को न लोभ उृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हो?
कौन हृदयँ नहि लाग कठिन अति नारि-नयन-सर?
लोचनजुत नहिं अंध भयो श्री पाइ कौन नर?
सुर-नाग-लोक महिमंडलहुँ को जु मोह कीन्हो जय न?
कह तुलसिदासु सो ऊबरै, जेहि राख रामु राजिवनयन?
(118)
भौंह -कमान सँधान सुठान जे नारि-बिलाकनि -बानतें बाँचे।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट-ज्यों जिनके मन आव न आँचे।।
लोभ सबै नटके बस ह्वै कपि-ज्यों जगमें बहु नाच न नाचै।
नीके हैं साधु सबै तुलसी , पै तेई रघुबीरके सेवक साँचे।।