राम-नाम-महिमा-4
(97)
खेती न किसान को, भिखारी केा न भीख ,बलि,
बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी।
जीविकाबिहीन लोग सीद्यमान सोचबस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई , का करी?’,
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी , दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।
(98)
कुल-करतुति -भूति-कीरति -सुरूप-गुन-
जौबन जरत जुर, परै न कल कहीं।
राजुकाजु कुपथु , कुसाज भोग रोग ही के,
बेद-बुध बिद्या पाइ बिबस बलकहीं।।
गति तुलसीकी लखै न कोउ , जो करत,
पब्बयतें छार, छारै पब्बय पलक हीं ।ं
कासों कीजै रोषु , दोषु दीजै काहि, पाहि राम!
कियो कलिकाल कुलि खललु खलक हीं।।